कर्त्तव्य पहले एक फौजी का ही नहीं उनके परिवार का भी ध्येय वाक्य है कर्त्तव्य पहले।
“माँ आपने नाश्ता किया। ये दवाई लिजिए और दोपहर के खाने की सब्जी फ्रिज से निकाल रखी है बाई को फोन कर के बता दूंगी क्या बनाना है। कपड़े निकालकर रखें है, जल्दी नहा लिजिए। मैं कपड़े मशीन में लगा जाउंगी।”
भारती जी प्यार से एकटक धरा को देखें जा रही थी।
“क्या माँ जल्दी करो। मैं ऑफिस के लिए लेट हो जाउंगी।”
“हाँ, हाँ कर रही हूँ। तू तो घोड़े पर सवार होकर आती है।”
“क्या मां आप भी? संडे रहते हैं ना सब एक साथ और तब नाती नातिन को देखते ही मुझे भूल जाती है।”
आंधी तूफान की तरह हर सुबह धरा आती एक घंटे में घर के सारे जरुरी काम निपटा कर ऑफिस चली जाती। शाम को बच्चों को ट्यूशन क्लासेस से लेकर एक बार भारती जी से मिलकर जाती।
कैसा रिश्ता जुड़ गया भारती जी के साथ उसका। आज से उन्नीस साल पहले भारती जी के बेटे कैप्टेन राजकिशोर का रिश्ता आया था उसके लिए। धरा के पिता और राजकिशोर के पिता द्वारकानाथ एक ही बैंक में नौकरी करते थे।
द्वारकानाथ जी ने ही धरा का हाथ अपने बेटे के लिए मांगा था। राजकिशोर को उसने बचपन में देखा था। फोटो में सजीले फौजी को देखते ही प्यार कर बैठी। धरा ग्रेजुएशन की फाइनल इयर की परीक्षा देकर रिजल्ट का इंतजार कर रही थी। राज छुट्टी पर आया तो दोनों की सगाई कर दी गई। वो पन्द्रह दिन उसकी जिंदगी के सबसे हसीन और प्रेरणादायी थे। राज शांत, हंसमुख और बेहद जिम्मेदार व्यक्ति था वहीं धरा चंचल, मदमस्त। राज हमेशा कहता मेरे लिए कर्त्तव्य पहले हैं। तुम मेरा साथ निभा पाओगी ना। शायद आर्मी का ध्येय वाक्य है इसलिए ऐसा कहता है धरा सोचती थी। राज के जाने का समय आ गया। आंखों में आंसुओ का सैलाब लिए धरा राज को विदा करने आई। राज ने कहा,”धरा तुम्हारा नाता अब फौजी से हो रहा है। साहस, धैर्य और संयम सिर्फ फौजी के लिए नहीं उनके परिवार वालों के लिए भी अहम है। एक फौजी तभी पूरे मन से कर्त्तव्य का निर्वहन कर सकता है जब उसके घरवाले मजबूती से उसका साथ दे। मुझे हँसते हुए विदा करो।” बहुत मुश्किल से आंखों में आंसुओं को छुपाते हुए उसने होंठों पर हँसी का आवरण ओढ़ा।
कारगिल युद्ध आरंभ हो चुका था। राजकिशोर अपनी बटैलियन का बेस्ट कमांडो था। असम से उनकी बटैलियन को कश्मीर में भेज दिया गया। कई-कई दिन बात नहीं हो पाती थी। फोन की घंटी की आवाज़ डरा जाती थी। पता नहीं क्या खबर आ जाएं। अचानक वह खबर आ गई जिसका डर था। राज शहीद हो गए। वह मनहूस दिन वह कभी नहीं भुला सकती। सुबह-सुबह द्वारकानाथ जी का फोन आया धरा के पिता जी के पास, “तिवारी जी राज शहीद हो गया है। आपसे अनुरोध है कि आप अभी कुछ दिन हमारे घर न आए। ये मिडिया वाले धरा बेटी का नाम लेंगे, उसे परेशान करेंगे।”
क्या कोई ऐसा हो सकता है एकलौते बेटे के जाने के ग़म से ज्यादा उन्हें मेरी फ्रिक थी। समाचारपत्र में उनका साक्षात्कार आया। राज के बारे में जानने से ज्यादा मिडिया वाले मेरे बारे में जानना चाहते थे। अंकल ने साफ शब्दों में मेरे बारे में बात करने से मना कर दिया। मुझे राज की बात याद आ रही थी। “साहस, धैर्य और संयम सिर्फ फौजी के लिए नहीं उनके परिवार वालों के लिए भी अहम है। कर्त्तव्य पहले हैं, चाहे वह देश के लिए हो, समाज के लिए या परिवार के लिए।” हाँ, कर्त्तव्य पहले हैं मेरे लिए भी। उसी दिन मैंने निर्णय ले लिया।
अंकल के मना करने के बावजूद मैं कुछ दिनों बाद उनके घर गई। बाहर से संयत दिख रहे अंकल-आंटी ने कलेजे में पत्थर बांध रखा था। मेरे लिए उनकी सूनी आंखों में झांकना मुश्किल हो रहा था। मैं माँ कहकर उनसे लिपट गई। मेरे आंसुओं का सैलाब जैसे रूक ही नहीं रहे थे। माँ ने मुझे कसकर पकड़ा और कहा,”शहीदों के लिए आंसू बहाना उनकी शहादत को कम करना होता है।” दो आंसू तो उनकी आंखों के कोरो में भी थे, पर कितने जतन से उन्होंने उसे रोक रखा था। राज की ट्रेनिंग ने एक असैनिक नागरिक को सैन्य साहस से ओत प्रोत कर दिया था।
अब मेरी दिनचर्या बदल गई थी। आगे पढ़ने के लिए एम.बी.ए. में दाखिला ले लिया। दिन में दो बार माँ पिता जी से मिलने जाती। उनके जरूरतों के सारे काम करती। राज के अधूरे कर्त्तव्यो को मुझे निभाना था। मैं शादी भी नहीं करना चाहती थी। परन्तु राज के पिता जी ने मुझे मजबूर कर दिया। उन्होंने खुद विकास को मेरे लिए चुना। मेरा कन्यादान किया। विकास के सामने मैंने सिर्फ एक शर्त रखी थी। “कर्त्तव्य पहले। मुझे मेरे कर्त्तव्यों से कभी मत रोकना।” विकास को समझाने की जरूरत नहीं थी। वो भी फौजी है और उसके लिए भी कर्त्तव्य पहले हैं। पिताजी आज हमारे बीच नहीं हैं पर माँ मेरा भरा पूरा परिवार देखकर खुश हैं।
आप सबको कारगिल विजय दिवस की शुभकामनाएं। यह लेख 527 शहीदों और उनके परिवारों को समर्पित जिनके लिए कर्त्तव्य पहले हैं।